मुझे माफ़ कर देना....


मैं तब तक शायद
मारा जा चुका होऊंगा....
मेरी लाश को
वो गुमनाम गड्ढों में
गाड़ रहे होंगे
रास्ते के
लैम्प पोस्ट पर
झूल रही होगी
एक संघर्षकारी की लाश
हो रही होंगी
गुमशुदा बाग़ियों की
तलाश
खलिहानों में
लगा दी गई होगी आग
आज़ादी के मुंह से
निकल रहा होगा
झाग
जंगलों में से
मातम की आवाज़
आएगी
शहरों में सन्न झुग्गियों से दूर
कहीं हो रहा होगा
जश्न
रोशन कंगूरों के
अंधेरों में
बलात्कारी हंसेंगे
और
रोएगी शांति
हक की बात पर
नप जाएगी गर्दन
जूतों के तलों के
नीचे
बंदूकों की बट से
तड़तड़ाती गोलियों से
भेद की बोलियों से
कुचली जाएगी
तुम्हारी क्रांति
तब जब
हम सबकी ज़िंदा लाशें
सड़कों पर
घसीटी जा रही होंगी
तुम हमेशा की तरह
यहीं कहीं
बैठी मिलोगी
नाराज़
और
रूठी
कि मैं तुम्हारा
ख्याल नहीं रखता हूं....


..........................06-02-2012.......(1.09 रात)..............................

टिप्पणियाँ

  1. खूबसूरत कविता है, जिन्दा संभावनाओं से भरी हुई, पर शायद और कसी जा सकती है..
    या फिर बढ़ाई..
    जैसे इस दिशा में "कि प्रेम करना/इन समयों में/छलने सा लगता है/अपने लोगों को/पर फिर भी/याद रखना/कि मारे जाने के समय भी/मेरे खयालों में कुछ इन्कलाब था/और कुछ तुम्हारा इश्क/और दोनों ही/अभिशापित/ अपनी जिंदगी में पूरा न होने के लिए//

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  2. इस दिशा में एक नई रचना लिखी जा सकती है...क्यों समर भाई, मिल के लिखा जाए कुछ...

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  3. मिल के कविता.. वाह.. सामुदायिक कविता का ख़याल तो नेक है.. कोशिश कर ही सकते हैं..

    जवाब देंहटाएं

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